इमरोज़
सुनो कोई है
जो अपने जीवन में ,
तुम्हारे कुछ कैनवास ,
कुछ रंग ,
कुछ बहके हुए स्ट्रोक
चाहती है ।
कही एक देह ,
अमृता होना चाहती है ।
इमरोज़
फिर कहीं एक नज़्म है
जो देह बनकर ,
फिर एक बार तुम्हारे कैनवास पर ,
रंग होना चाहती है ।
कही एक देह ,
अमृता होना चाहती है ।
इमरोज़
बहुत हुए किस्से संग जीने , संग मरने के ,
खाली जूठे गिलासों में ,
सिगरेट के बुझे हुए बटों में ,
बगैर देह कोई अमृता
आज फिर प्रेम होना चाहती है ।
कही एक देह ,
अमृता होना चाहती है ।
इमरोज
प्रेम से परे ,
रंगों से भरे कैनवास पर ,
अपने हर रिस्ते को अंत तक फूंक
एक खाली जगह
एक खाली एहसास
एक धुआं होना चाहती है ।
कही एक देह ,
अमृता होना चाहती है ।
इमरोज़
अपनी टूटती हुई साँसों से
अपनी सूखी हुई आंखों के कैनवास पर
तुम आज भी
ये जो अमृता की तस्वीर बना रहे हो ,
इस रंग का बस एक छींटा मांग ,
किसी नज़्म की शरीके हयात होना चाहती है ।
कही एक देह ,
अमृता होना चाहती है ।
इमरोज़
आज भी कहीं एक अमृता
सब कुछ भूल कर
सिर्फ और सिर्फ
इमरोज़ होना चाहती है ।