कुछ देर पहले
आँखों से सपने उतार के
धोये निचोड़े और बाहर बरामदें में
अलगनी पर सुखा दिये ,
पता नहीं कब पूरे दिन में
वक़्त की चिड़िया ने अपनी सच्चाई की बीट
के निशान इन धुले हुए
चमकते सपने पर लगा दिये ।
उस दिन रात अपने आप से बहुत झगड़ी
और दोषी नींद को घर से
बाहर निकाल दिया ।
उस दिन सुना है सपनों ने कोई साज़िश करी
और हाँटों की अलमारी से
मुस्कुराहट चुरा कर
सच्चाई के रैपर में लपेटीं
आस पास बैठे रिश्तों को
बेच दीं ।
आँखों ने जागते जागते पलके झपकीं
और सुना है
नींद दिन की चौपड़ पर हार दी ।
बहुत सारी किताबों में लगे
बुक मार्क
पता नहीं कब पीले पड़ गये
और आँखों की स्याही
सूख कर सपने लिखना भूल गई ।
कहते है उस दिन
यथार्थवादी कविता
का जन्म हुआ ।