अमृता

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अमृता

जब जब कैनवास पे
खींचता हूँ कुछ लकीरें ,
जाने कहाँ से तुम आ ही जाती हो ,
कितने भी गाढे हो मेरे रंग
अमृता
तुम एक बूंद बनकर छलक ही जाती हो ।
सदियों से ,
इतिहास बन बन के ,
जाने कितने समर्पण रंगे हैं मैंने ,
फिर भी
मेरी हर एक उम्र के हर एक पड़ाव की दहलीज पर
अमृता
तुम आ कर कुछ देर ठहर ही जाती हो ।
बहुत कोशिश करता हूँ
दिन और रात के बीच की शाम में रंग भरने की ,
दिन और रात भटकती देह से
निकल एक नज़्म बन
अमृता
तुम मेरे कैनवास का
हस्ताक्षर हो ही जाती हो ।
जब जब तुम्हारी देह पर
मेरे ब्रश के स्ट्रोक्स लगते है ,
बगैर श्याही की एक नज़्म बन
अमृता
तुम मुझे वापस खोज ही लाती हो ।
अमृता
कोई माने न माने
आज भी तुम एक पल को
इमरोज़ हो ही जाती हो ।